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Monday, October 18, 2010

हिन्दी साहित्य (HINDI SAHITYA)

द्वितीय श्रेणी अध्यापक परीक्षा के लिए विशेष
(RPSC II GRED TEACHER EXAM)
Part -3
201 सोरठा छंद के लक्षण है - यह मात्रिक सम छंद है। विषम चरण में 11 व सम चरण में 13 मात्राएं होती है। तुक विषम चरणों की मिलती है। यह छंद दोहा का उल्टा होता है।
202 सोरठा का उदाहरण है -
- अकबर समंद अथाह तहै डूबा हिन्दू तुरक
मेवाड़ों तिण मांह पोयण फूल प्रताप सी
203 चौपाई छंद के लक्षण है - यह मात्रिक सम छंद है। प्रत्येक चरण में 16 मात्रा और अंत में गुरु लघु न होते है
203 चौपाई का उदाहरण है -
- सुनी जननी! सोह सुत बडभागी, जो पितृ मात वचन अनुरागी
तनय मात-पितृ तोखनहारा, दरलभ जननि! सकल संसारा
204 हरिगीतिका के प्रत्येक चरण में कितनी मात्राएं होती है - 28
205 वर्णिक छंद कौन-कौन से है - दु्रतविलम्बित, कवित्त, मंदाक्रांता
206 श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि... में छंद है - दोहा
207 कंकन किंकिन नूपुर धुनि सुनि, कहत लखन सन राम ह्दय गुनि में छंद है - चौपाई
208 संसार की समर स्थली में धीरता धारण करो चलते हुए निज दुष्ट पथ पर, संकटों से मत डरो में छंद है - हरिगीतिका
209 मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय, जा तन की झांई परे, श्यामु हरित दु्रति होय में छंद है - दोहा
210 नील सरोरूह स्याम, तरून अरून वारिज नयन, करउ सो मम उर धाम, सदा छीरसागर सयन में छंद है - सोरठा
211 प्रबल जो तुम में पुरूषार्थ हो, सुलभ कौन तुम्हे न पदार्थ हो। प्रगति के पथ पर विचरो उठो, भुवन में सुख-शांति भरो उठो ॥ में छंद है - दु्रतविलम्बित
212 मत मुखर होकर बिखर यों, तू मौन रह मेरी व्यथा, अवकाश है किसको सुनेगा, कौन यह तेरी कथा। में छंद है - हरिगीतिका
213 विलसता कटि में पट पीत था। रुचिर वस्त्र विभूषित गात था। लस रही उर में बलमाल थी। कल दुकूल अलंकृत स्कंध था में छंद है - चौपाई
214 या लकुटी अरू कामरिया पर, राज तिहुं पुर को तजि डारो में छंद है - मतगयंद सवैया
215 रहिमन मोहि न सुहाय, अमिय पियावत मान बिनु, वरन विष देय बुलाय, मान सहित मरिबो भलो में छंद होगा - सोरठा
216 निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल में छंद होगा - दोहा
217 इस भांति गदगद कंठ से तू,रो रही है हाल में रोती फिरेगी कौरवो की, नारियां कुछ काल में यहां छंद है - हरिगीतिका
218 बोला बचन नीति अति पावन, सुनहु तात कुछ मोर सिखावन में छंद है - चौपाई
219 निसि द्यौंस ख्री उर मांझ अरी, छवि रंग भरी मुरि चाहनि की। तकि मोर नित्यो खल ढोरि रहे, टरिगो हिय ढोरनि बाहनि की में छंद है - दुर्मिल सवैया
220 छंद के प्रकार है - मात्रिक और वर्णिक छंद (गण बध्द और मुक्तक)
221 चार से अधिक चरण वाले छंद कहलाते है - विषम छंद (कवित्त और कुण्डलिया)
222 कवित्त छंद के भेद है - मनहरण कवित्त और घनाक्षरी
223 मनहरण कवित्त के प्रत्येक चरण में वर्ण होते है - 31 (8 8 7 8 वर्णो पर यति)
224 घनाक्षरी छंद के भेद है - रूप घनाक्षरी (32 वर्ण ) और देव घनाक्षरी (33 वर्ण)
225 सवैया के तीन प्रकार है - भगण से बना हुआ, सगण से बना हुआ और जगण से बना हुआ
226 सवैया छंद के भेद है - मतगयंद (मालती) सवैया, सुमुखी सवैया, चकोर सवैया (23 वर्ण), किरीट सवैया, दुर्मिल सवेया, अरसात सवैया (24 वर्ण), सुंदरी सवैया, अरविंद सवैया, लवंगलता सवैया (25 वर्ण) एवं सुख सवैया या कुंदलता सवैया (26 वर्ण)

रस (RAS)
227 आचार्य भरत ने नाटयशास्त्र में रस माने है - उन्होंने नाटक में आठ रस माने है
228 नवां रस 'शांत रस' कब से स्वीकार किया गया - हर्षवर्ध्दन रचित नागानंद नाटक की रचना के बाद
229 वात्सल्य रस की स्थापना कब हुई - महाकवि सूरदास द्वारा वात्सल्य सम्बन्धित मधुर पद से
230 भक्ति को रस रूप माना गया - भक्ति रसामृत सिंधु और उवल नीलमणि नामक ग्रंथ की रचना के बाद
231 रसों की कुल संख्या है - वर्तमान में 11
232 रस शब्द किसके योग से बना है - रस् + अच्
233 नाटयशास्त्र के आधार पर रस की परिभाषा है - स्थाई भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पति होती है।
234 आनंदवर्धन ने रस की परिभाषा दी है - रस का आश्रमय ग्रहण कर काव्य में अर्थ नवीन और सुंदर रूप धारण कर सामने आता है।
235 काव्य पढ़ने के बाद ह्दय में जो भाव जगते है उसे रस कहते है यह परिभाषा दी है - डॉ. दशरथ औझा ने
236 रस के अंग (अवयव) है - चार, विभाव, अनुभाव, संचारी और स्थाई
237 विभाव का अर्थ है - कारण । लोक में रति आदि स्थायी भावों की उत्पति के जो कारण होते है उन्हें विभाव कहते है।
238 विभाव के प्रकार है - 1 आलम्बन (विषयालम्बन और आश्रयालम्बन), 2 उद्दीपन (आलम्बन की चेष्टा और प्रकृति तथा वातावरण को उद्दीप्त करने वाली वस्तु)
239 विषयालम्बन कहते है - उन रति आदि भावों का जो आधार है वह आश्रय है।
240 आश्रयालम्बन कहते है - उन रति आदि भावों का जो आधार है वह आश्रय है।
241 उद्दीपन विभाव कहते है - स्थाई भाव को और अधिक उद्प्रबुध्द, उद्दीप्त और उत्तेजित करने वाले कारण को कहते है।
242 अनुभाव कहते है - विभावों के उपरांत जो भाव उत्पन्न होते है उन्हें अनुभाव कहते है।
243 बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाई, सौंह करे, भौंहनि हंसे, दैन कहै नटि जाय में अनुभाव है?
- गोपियों की चेष्टाएं, सौंह करे, भौंहनि हंसे आदि अनुभाव है।
244 अनुभाव के प्रकार है - 1 कायिक (शारीरिक), 2 मानसिक, 3 आहार्य (बनावटी), 4 वाचिक (वाणी), 5 सात्विक (शरीर के अंग विकार)
245 सात्विक अनुभाव की संख्या है - आठ । स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, वेपथु, वैवण्य, अश्रु, प्रलय
246 नायिका के अनुभाव माने गए है - 28 प्रकार के।
247 व्यभिचारी या संचारी भाव कहते है - वह भाव जो स्थायी भाव की ओर चलते है, जिससे स्थायी भाव रस का रूप धारण कर लेवे। इसे यो भी कह सकते है जो भाव रस के उप कारक होकर पानी के बुलबुलों और तरंगों की भांति उठते और विलिन होते है। उन्हें व्यभिचारी या संचारी भाव कहते है।
248 संचारी भाव के भेद है - भरत मुनि ने 33 संचारी भाव माने है (निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, देन्य, चिंता, मोह, स्मृति, घृति, ब्रीडा, चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अमर्ष, अविहित्था, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, वितर्क) महाकवि देव ने 34 वां संचारी भाव छल माना लेकिन वह विद्वानों को मान्य नहीं हुआ। महाराज जसवंत सिंह ने भारतभूषण में 33 संचारी भावों को गीतात्मक रूप में लिखा है।

249 स्थायी भाव का अर्थ है - जिस भाव को विरोधी या अविरोधी भाव आने में न तो छिपा सकते है और न दबा सकते है और जो रस में बराबर स्थित रहता है।
250 'हा राम! हा प्राण प्यारे। जीवित रहूं किसके सहारे' में रस है - करूण रस
251 हे खग मृग हे मधुकर श्रेणी। तुम देखी सीता मृगनैनी॥ में रस है - वियोग शृंगार रस
252 स्थायी भाव की विशेषताएं है - अन्य भावों को लीन करने की, विभाव, अनुभाव, संचारी भाव से पुष्ट होकर रस में बदलता है।
253 स्थायी भाव के भेद है- प्राचीन काव्यशास्त्रियों के अनुसार नौ तथा आधुनिक के अनुसार 11
254 स्थायी भाव के भेद के नाम - रति, शोक, क्रोध, उत्साह, ह्यास, भय, विस्मय, घृणा, निर्वेद, आत्म स्नेह और ईष्ट विषयक रति।
255 भाव और रस में अंतर है -
- भाव का सम्बन्ध रज, तम, सतो गुण से है रस में सत्व का उद्रेक होता है।
- भाव का उदय मनुष्य ह्दय से, रस आस्वादन आनंद रूप में होता है।
- रस की अनुभूति शाश्वत पर भावों की अनुभूति क्षणिक होती है।
- रस का उदय अद्वेत रूप में जबकि भावों का उदय खण्ड रूप में होती है।
256 शृंगार रस का परिचय है - विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से पति-पत्नी का या प्रेमी-प्रेमिका का रति स्थायी भाव शृंगार रस कहलाता है। यह रस विष्णु देवता से सम्बन्धित है। इसके आश्रय और आलम्बन नायक-नायिका है।
257 शृंगार रस के भेद है- संयोग और वियोग
258 वियोग शृंगार के भेद है - पूर्वराग, मान, प्रवास, अभिशाप (करूण विरह)
259 हास्य रस का परिचयन है - हास्य रस का स्थायी भाव हास हे। इसका आलम्बन विलक्षण प्राणी या हंसी जगाने वाली वस्तु तथा आश्रय दर्शक है। इस रस के देवता प्रमथ है।
260 हास्य रस के भेद है - स्मित, हसित, विहसित, अपहसित, प्रतिहसित
261 अपहसित का अभप्राय है - हंसते-हंसते नेत्र से आंसू निकल पडे।
262 प्रतिहसित का अर्थ है - सारा शरीर हिले और लोटपोट हो जाए।
263 करूण रस का परिचय है - करूण रस का स्थायी भाव शोक है। दु:खी, पीड़ित या मृत व्यक्ति आलम्बन विभाव और उससे सम्बन्ध रखने वाली वस्तुओं को तथा अन्य सम्बन्धियों को देखना उद्दीपन विभाव है।
264 वियोग शृंगार और करूण रस में अंतर है -
- वियोग शृंगार में मिलन की आस रहती है किंतु करूण रस में आस समाप्त हो जाती है।
- वियोग शृंगार के देवता श्याम है जबकि करूण रस के देवता यम है।
- वियोग शृंगार सुखात्मक भी होता है जबकि करूण रस पूरी तरह दुखात्मक होता है।
265 वीर रस का परिचय है- कठिन कार्य (शत्रु के अपकर्ष, दीन दुर्दशा या धर्म की दुर्गती मिटाने) के करने का जो तीव्र भाव ह्दय में उत्पन्न होता है उसे उत्साह कहते है। यही उत्साह विभा, अनुभाव और संचारियों के योग से वीर रस में तब्दील हो जाता है।
266 वीर रस के भेद है -युध्द वीर, दानवीर, दयावीर और धर्मवीर
267 रोद्र रस की परिभाषा दीजिए- रोद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है। अपने विरोधी अशुभ चिंतक आदि की अनुचित चेष्टा से अपने अपमान अनिष्ठ आदि कारणों से क्रोध उत्पन्न होता है वह उद्दीपन विभाव, मुष्टि प्रहार अनुभाव और उग्रता संचारी भाव से मेल कर रोद्र रस बन जाता है।
268 भयानक रस का परिचय है - भय इसका स्थायी भाव है। सिंह, सर्प, भंयकर जीव, प्राकृतिक दृश्य, बलवान शत्रु को देखकर या वर्णन सुनकर भय उत्पन्न होता है। स्त्री, नीच मानव, बालक आलम्बन है। व्याघ्र उद्दीपन विभाव और कम्पन अनुभाव, मोह त्रास संचारी भाव है।
269 बौरो सबे रघुवंश कुठार की, धार में वार बाजि सरत्थहिं। बान की वायु उडाय के लच्छन, लच्छ करौं अरिहा समरत्थहिं॥ में रस है - रोद्र रस
270 जौ तुम्हारि अनुसासन पावो, कंदूक इव ब्रह्माण्ड उठावों। काचे घट जिमि डारों फोरी संकऊं मेरू मूसक जिमि तोरी में रस है - रोद्र
271 'शोक विकल सब रोवहिं रानी, रूप शील बल तेज बखानी, करहिं विलाप अनेक प्रकारा, परहिं भूमि-तल बारहिं बारा' में रस है - करूण
272 वीभत्स रस की परिभाषा है - वीभत्स रस का स्थायई भाव जुगुप्सा है। दुर्गन्धयुक्त वस्तुओं, चर्बी, रूधिर, उद वमन आदि को देखकर मन में घृणा होती है।
273 अद्भूत रस का परिचय है - इस रस का स्थायी भाव विस्मय है। अलौकिक एवं आश्चर्यजनक वस्तुओं या घटनाओं को देखकर जो विस्मय भाव हृदय में उत्पन्न होता है उसमें अलौकिक वस्तु आलम्बन विभाव और माया आदि उद्दीपन विभाव है।
274 शांत रस की व्याख्या कीजिएि - शांत रस का विषय वैराग्य एवं स्थायी भाव निर्वेद है। संसार की अनित्यता एवं दुखों की अधिकता देखकर हृदय में विरक्ति उत्पन्न होती है। सांसारिक अनित्यता-दर्शन आलम्बन और सजन संगति उद्दीपन विभाव है।
275 शांत रस का उदाहरण है - हरि बिनु कोऊ काम न आवै, यह माया झूठी प्रपंच लगि रतन सौ जनम गंवायो
276 वात्सल्य रस का परिचय दीजिए- इसका स्थायी भाव वत्सल है। इसमें अल्पवयस्क शिशु आलम्बन विभाव, उसकी तोतली बोली एवं बाल चेष्टाएं उद्दीपन विभाव है।
277 भक्ति रस की परिभाषा है - स्थायी भाव देव विषयक रति आराध्य देव, आलम्बन, सांसारिक कष्ट एवं अतिशत दुख उद्दीपन विभाव है। दैन्य, मति, वितर्क, ग्लानि आदि संचारी भाव है।
278 रस को आनंद स्वरूप मानने वाले तथा अभिव्यक्तिवाद के संस्थापक है - अभिनव गुप्त
279 भट्टनायक ने किस रस सिध्दांत की स्थापना की - भुक्तिवाद की।
280 संयोग शृंगार का उदाहरण है - बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय
281 वियोग शृंगार का उदाहरण है- कागज पर लिखत न बनत, कहत संदेश लजाय
282 'एक और अजगरहि लखि, एक और मृगराय, विकल बटोही बीच ही, परयो मूरछा खाय' में रस है - भयानक रस
283 आचार्य भट्लोल्लट का उत्पतिवाद है - आचार्य के अनुसार रस वस्तुत: मूल पात्रों में रहता। दर्शक में भ्रम होने से रस की उत्पति होती है।
284 आचार्य शंकुक का अनुमितिवाद है - रंगमंच पर कलाकार के कुशल अभिनय से उसमें मूल पात्र का कलात्मक अनुमान होता है, जैसे चित्र में घोड़ा वास्तविक नहीं होता है, देखने वाला अश्व का अनुमान लगाता है।
285 आचार्य अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद के निष्पति का अर्थ है - विभव, अनुभाव आदि से व्यक्त स्थायी भाव रस की अभिव्यक्ति करता है। इस प्रक्रिया में काव्य पढ़ते या नाटक देखते हुए व्यक्ति स्व और पर का भेद भूल जाता है और स्वार्थवृति से परे पहुंचकर अवचेतन में अभिव्यक्त आनंद का आस्वाद लेने लगता है।
286 मन रे तन कागद का पुतला। लागै बूंद विनसि जाय छिन में गरब करै क्यों इतना॥ में रस है - शांत रस
287 अंखिया हरि दरसन की भूखी। कैसे रहे रूप रस रांची ए बतियां सुनि रूखी। में रस है - वियोग शृंगार
288 रिपु आंतन की कुण्डली करि जोगिनी चबात, पीबहि में पागी मनो, जुबति जलेबी खात॥ में निहित रस है - जुगुप्सा, वीभत्स
289 मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई में रस निहित है - ईश्वर रति, भक्ति
290 यह लहि अपनी लकुट कमरिया, बहुतहि नाच नचायौ। में रस निहित है - वत्सल, वात्सल्य
291 समस्त सर्पो संग श्याम यौ ही कढे, कलिंद की नंदिनि के सु अंक से। खडे किनारे जितने मनुष्य थे, सभी महाशंकित भीत हो उठे॥ में निहित रस है - भय, भयानक
292 देखि सुदामा की दीन दसा, करूणा करि के करूणानिधि रोये। में रस है - शोक, करूण
293 मैं सत्य कहता हूं सखे! सुकुमार मत जानो मुझे। यमराज से भी युध्द में, प्रस्तुत सदा जानो मुझे॥ में रस है - उत्साह, वीर
294 'एक और अजगरहि लखि, एक ओर मृगराज। विकल बटोहीं बीच ही, परयो मूरछा खाय' में रस है - भयानक
295 पुनि-पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू, पुलक गात, उर अधिक उछाहू। में कौनसा अनुभाव है - कायिक, सात्विक, मानसिक
296 रस के मूल भाव को कहते है - स्थायी भाव
297 चित्त के वे स्थिर मनोविकार जो विरोधी अथवा अविरोधी, प्रतिकू अथवा अनुकूल दोनों प्रकार की स्थितियों को आत्मसात कर निरंतर बने रहे रहते है कहलाते है - स्थायी भाव
298 वे बाह्य विकार जो सहृदय में भावों को जागृत करते है कहलाते है - विभाव
299 स्थायी भाव को उद्दीप्त या तीव्र करने वाले विभाव कहलाते है - उद्दीपन
300 जिसके मन में भाव या रस की उत्पति होती है उसे कहते है - आश्रय

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